मारवाड़ी होली के रंग (Colours Of Marwadi Holi)

बालक की प्रथम ढूंढ पर गेरियों द्वारा  कौनसा गीत गाया जाता है?

    

*हरि हरि रे हरिया वेल, 

  डावे कवले चम्पा वेल।*

*कोकड माय जाड़ बूट,

  इण घर इतरा घोड़ा ऊंट।*

*इण घर इतरी गायों भैयो, 

इण घर इतरी टिंगडियो।*

*इण घर जाया लाडल पूत, 

छोटी कुलड़ी चमक चणा।*

*डावे हाथ लपुकों ले, 

जीमणे हाथ चंवर ढोलाव।*

*ज्यों ज्यों चम्पो लहरों ले, 

डावे हाथ लेहरियों ले।*

*सात हवाणी जणा पच्चास,

 गेरियों रो पुरो हास।*

*घर धणयोणी बारे आव,

 गुडरी भेली लेती आव।*

*साकलियो रो डालो लाव, 

गेरीयों री आस पुराव।*

*गेरिया आया थारे द्वार, 

हरि हरि रे हरिया ढूंड।*

*हासो मोटो ताजो रेइजे।*

*ये वो मारवाड़ी शब्दोच्चार है, जो बालक की प्रथम ढूंढ पर गेरियों द्वारा गाया जाता है।* *हमारी संस्कृति और उल्लास का प्रतीक। 

मारवाड़ की होली और “ढूंढ” परंपरा क्या है?

संतान की लम्बी उम्र की कामना का संस्कार हैं ढूंढोत्सव ।यह पर्व होली के दूसरे दिन सूर्योदय के साथ ही मनाया जाता है।

भारत तीज-त्यौहारों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों का देश हैं. ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि भारत ने सांस्कृतिक विविधताओं को अपने आँचल में समेट रखा है. हो सकता है आज के भौतिकवादी युग के कुछ तथा कथित बुद्धिजीवियों के लिए यहाँ की परम्पराएँ पाखण्ड हो, लेकिन जनमानस अपनी संस्कृति का पालन करना बड़े ही उत्साह और उमंग से करता है. पूर्वजों द्वारा दी गई विरासत को बखूबी निभा रहे हैं. 

राजस्थान के गौरवशाली इतिहास, सांस्कृतिक, संस्कार, कला और संस्कृति के अलावा ऐसी-ऐसी परम्पराएँ और रीति-रिवाज है जो कहीं और देखने में शायद ही मिले. ऐसी ही एक परम्परा है “ढूंढ़”.

राजस्थान की गौरवशाली परम्पराओं को जहाँ राजस्थानी बड़े उत्साह और उमंग से मनाते है वहीं पर इन परम्पराओं को देखने और समझने के लिए देश-विदेश के लाखों पर्यटक मरूधरा में पधारते है. चाहे गणगौर की सवारी हो या फिर तीज की. एक बात और राजस्थानी की वे चाहे देश में रहते हो या फिर विदेश में अपनी परम्पराओं का निर्वाह पूरी ईमानदारी से करते है. इसी कड़ी में आज राजस्थान की प्रमुख परम्परा ढूंढ क्यों और कब मनाया जाता है इसकी जानकारी…

होली पर कई परम्पराएं निभाई जाती हैं. इन्हीं में से एक है ढूंढ या ढूंढोत्सव. यह परम्परा सदियों से चली आ रही है. इस परम्परा का उद्देश्य संतान की लम्बी उम्र की कामना करना है. कई परिवारों में ढूंढोत्सव पुत्र के जन्म पर उसकी पहली होली पर मनाया जाता है. इसमें परिजन पुत्र की लम्बी उम्र की कामना के लिए उसे आशीर्वाद देते है. पूजा-अर्चना की जाती है और महिलाएं मंगल गीत गाती है. 

ढूंढ की परम्परा क्यों निभाई जाती है ? इसके पीछे कई दंतकथाएं प्रचलित है. इस सम्बंध में मुख्य रूप से एक कहानी प्रचलित है. प्राचीन काल में एक गांव में एक राक्षसी थी. उसका नाम ढूंढ था. वह बहुत भयानक थी और बच्चों को मारकर खा जाती थी. देखते ही देखते गांव की आबादी घटने लगी. इससे गाँव वाले इस से बहुत परेशान रहते थे. इस समस्या के निराकरण के लिए ग्रामीण गांव के बाहर तपस्या कर रहे ऋषियों की शरण में गये और उन्हें अपनी समस्या के बारे में बताया. ईश्वर की कृपा से ऋषि उस राक्षसी का वध करने में सफल हो जाते है. उसके बाद गांव में बच्चे सुरक्षित हो गए. तभी से होली पर ढूंढ की परम्परा निभाई जाने लगी. इस परम्परा में पहले गांव के सभी लोग जिस घर में नया मेहमान आता था वहां ढोल-नगाड़े बजाकर ढंढोत्सव मनाते थे. बाद में यह परम्परा सिमट गई. अब केवल परिजन इस आयोजन में शामिल होते हैं.

कब आता है ढूंढ ?

होली से पहले एकादशी को नवजात शिशु की नानी एवं बुआ-बहन के घर से ढूंढ आता है. इसमें बच्चे के कपड़े, फूले, फल, खिलौने, बतासे आदि होते है. इस सामग्री की पूजा होती है और मंगल गीत गाए जाते है. रिश्तेदार नए सदस्य को आशीर्वाद के रूप में कपड़े, फल, भेंट आदि देकर उसकी लंबी उम्र की कामना करते है. 

रंगों के त्योहार होली पर कई परम्पराएँ का आयोजन किया जाता है. इसी तरह कई जगह धुलेण्डी पर एक वर्ष से कम उम्र के नवजात की ढूंढ परम्परा का आयोजन होता है. भारतीय त्योहारों को मनाने के पीछे कोई न कोई लोक कथा या प्रसंग जुड़ा रहता है उसी प्रकरण के अऩुसार अलग-अलग परम्पराएँ आज भी मनायी जाती है. ढूंढ़ प्रथा के संबंध में दुसरी लोक कथा भी प्रचलित है. कहते हैं – बहुत सालों पहले एक राजा था. उसके एक-एक करके पाँच सन्तानें हुई और वे सारी की सारी चल बसीं. सन्तान के अभाव में उसके महल में कोई भी त्योहार हँसी-खुशी के साथ नहीं मनाया जाता था. राजा हर समय इसी चिन्ता में खोया-खोया रहता कि उसके बाद राज्य का उत्तराधिकारी कौन बनेगा ? एक बार होली के दिन उसने जलती होली में कूद कर प्राण देने का निश्चय कर लिया. ज्यों ही वह जलती होली में कूदने को तत्पर हुआ त्यों ही भक्त प्रह्लाद अग्नि में से प्रकट हुए और उन्होंने राजा की बाँह पकड़ कर कहा राजन ! आज से ठीक नौ माह बाद तुम्हें पुत्ररत्न प्राप्त होगा किन्तु हर वर्ष उसकी उम्र ढूंढ़ करवानी होगी. उसी दिन से ढूंढ़ की यह प्रथा आज तक चली आ रही है. 

ग्रामीण अंचल में होली के दिन ढूंढ़ के स्वागत में घरों के चौक को मांडनों से अलंकृत किया जाता है. इसे चौक पूरना कहा जाता है. कच्चे घरों के आँगन को गोबर व लाल मिट्टी से लीप-पोत कर साफ-सुथरा स्वरूप दिया जाता है.  इस शुभ अवसर पर अत्यन्त आकर्षक और खूबसूरत मांडने मांडे जाते हैं. इन माण्डणों से ढूंढ का उल्लास झलकता है. कला व्यक्ति की उत्सवधर्मिता और आनन्दमयी मनः स्थिति को दर्शाती है. चंग, ढफ, ढोलक, स्वस्तिक, सूर्य, चन्द्रमा, पंखी, गेंद, पगल्या के अलावा दीपक, थाली, पान-सुपारी के मनभावन मांडणों द्वारा हृदय के उल्लास को चित्रांकन के रूप में चित्रित किया जाता है. पगल्या और पंखी के नमूने चित्ताकर्षक और स्वस्तिक काफी भव्य रूप में बनाया जाता है. इसी स्वस्तिक के मांडने पर बाजोट बिछाकर ढूंढ़ संस्कार सम्पन्न करवाया जाता है.

ढूंढ़ दो तरह की होती है. एक नन्हें बालक के जन्म के बाद पहली होली पर होने वाली ढूंढ़. उम्रढूंढ़ केवल उसी स्थिति में करवाई जाती है जब कोई बालक काफी सन्तानों के गुजर जाने के बाद इकलौती संतान के रूप में जीवित रहता है. उस बालक को जीवन्त पर्यन्त ढूंढा जाता है. ढूंढ़ के समय चाचा या मोहल्ले के किसी बडे व्यक्ति को बाजोट पर बैठाकर उसकी गोद में बालक को सुला दिया जाता है. उम्रढूंढ़ ढूंढ़वाने वाले व्यक्ति के स्थान पर कई बार उसकी अनुपस्थित में, उसके वस्त्रों को भी ढूंढ़ा जाता है. दीर्घायु की कामना होती है इस दिन होलिका दहन के पश्चात् ढूंढ़ने वाले लोगों का दल हाथों में लकड़ी की तलवारें लेकर निकल पड़ता है. एक के बाद एक घर में बच्चों व उम्र ढूंढ़वाने वालों को ढूंढ़ते हुए उनके दीर्घायु जीवन की कामना करता हुआ यह दल पूरे गांव का चक्कर लगाता है. 

ढूंढ़ के दौरान उन्ही भावनाओं को व्यक्त करते हुए एक गीत भी गाया जाता है- आडा दीजै, पाडा दीजै, रावला खेत खड़ीजै, चन्दन बड़ोई बड़ौ.आड़ो पाड़ौ घी घडों, चंदन इडो रे इडो और हरी हरि हरिया भेल, डावै कवळे… आदि लोक रंगों का दरिया उमड़ता है इन पंक्तियों को सात बार दोहराया जाता है. गीत के बोल और तलवारों की झनकार में ढूंढ़ने वालों का पूरा उत्साह व्यक्त होता है. 

ढूंढ़ वाले बच्चों को पकड़े हुए व्यक्ति से लगभग दो हाथ ऊपर एक तलवार तिरछी रख कर उसका दूसरा सिरा सामने की तरफ खड़ा साथी मजबूती के साथ पकड़ लेता है. इसी के ऊपर टकराई जाती है बाकी की तलवारें. इन तलवारों को अलंकृत भी किया जाता है. उपहारों का भी अपना आनंद है होली पर इस अवसर पर ढूंढ़ की सारी वस्तुएँ ननिहाल पक्ष या कही-कहीं भुआ द्वारा भी भेजी जाती है. इन वस्तुओं में बालक की ढूंढ़ की पोशाक के अतिरिक्त दो जोड़ी नारियल, हटड़ी, खाजे, बेर, चने, कूली, फूलियों के साथ होली पर बनने वाले व्यंजन भी होते हैं. घर का बुजुर्ग बडा-बडेरा एक जोड़ी नारियल इन व्यंजनों के साथ फगुएं के रूप में ढूंढ़ वालों को बड़े प्यार और स्नेह के साथ भेंट के रूप में देता है. दूसरी नारियल की जोड़ी ढूंढ़ के दौरान बालक को गोदी में लेकर बैठने वाले व्यक्ति को भेंट में प्रदान की जाती है. इस तरह होली का पर्व उम्रढूंढ़ लाने का बहुत अच्छा अवसर है. जिसमें जलती होली में से उम्र चुरा कर अपने अजीजों के लिए दीर्घायु जीवन की मनोकामना की जाती है.

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